Tuesday, July 27, 2010

नए नए रूप

एक सुन्दर सी स्त्री
नित नए-नए
श्रंगार को सोचिती है
बदलने कि कोशिश में
रहती है नित अपना
सुन्दर सलोना रूप.

कुछ ऐसा ही हाल
इंसानियत का हो गया
इन्सान ही इंसान
के खात्मे का नया
से नया तरीका कर इजाद
हर हाल में अपनों को ही
खा जाना चाहता है,
मिट गया अपने- पराये
का भेद-भाव,
हर तरफ समानता है
हर कोई इंसानियत से ऊपर
उठ गया है और
पैसे में ही खो गया है.

अब अपनापन तो खो गया
जो था वह बिसर गया
धन कि अंधी दौर में
इधर कि न उधर कि
हर तरफ बस चिंता
आदमी को धन की,
अपने ही बह्नाये
इस कुचक्र में
फसा है इन्सान,
चाँद रुपयों के लिए
मिटा रहा अपनों को
सजा रहा झूठे सपनो को.

Monday, July 12, 2010

इन्सान का होना

एक आदमी कि
टेढ़ी-मेढ़ी, टूटी-फूटी
हड्डिया कुचली पड़ी थी,
कुछ लोग रो-रो
चिल्ला रहे थे
एक आदमी ही
हमारे इस आदमी को मार गया.
कुछ भी ले-ले लेता
कुछ भी कर लेता
कम से कम इन्सान को
बक्स देता.

न जाने क्यों आदमी
ही आदमी को खा रहा है,
देखो अब आदमी ही
आदमी के लिए 
रो रहा है.
इंसानियत के चबूतरे पर
बात कुछ आदमी
ही आदमी को कट
रहे है, उसे काटने योग्य
बता रहे है.

इंसानियत कि बात
ख़त्म हो चली है
कुत्ते से भी बदतर
मौत इन्सान मार रहा है,
उसकी मौत पर इन्सान ही
हस रहा है, जश्न मन रहा है.
कहकहे लगा रहा है
उसके इन्सान होने पर
शक जाता रहा है.


Friday, July 9, 2010

सच ही तो था

ढह रहा एक आशियाना
सच ही तो था,
अपने को छिपाने को
अपने को अपनों से
ऊपर उठाने को
टूट रहा विश्वास
सब सच ही तो था.

लूट - लूट अपनों से ही
दुनिया को जताने को
दुनिया को दिखाने को
रचा gaya chhal
wah सच ही तो था.

Saturday, July 3, 2010

मेरी बेबसी

जिधर नजर उठ रही है
बेबसी नजर आ रही है,
कोई किसी से बेबस है
तो कोई किसी से.

मै समझ रहा था
मै ही बेबस हूँ
यहाँ तो हर कोई
बेबस नजर आ रहा है.
न कोई नजर उठा रहा है
न कोई नजर मिला रहा है
आँखें होते हुए भी
हर कोई अँधा बना हुआ है.
अँधेरे में अब हर इन्सान
जी रहा है.

इन्सान, इन्सान को भूल
प्रकति से खेल रहा है
जिसे जो करना चाहिए
वह न कर, इंसानियत से
खेल रहा है.
इंसानों के खून से
रुपये बना रहा है.
उन रुपयों से इंसानों पर
रुतुबा दिखा रहा है.
उसके सामने इंसानियत भी
बौबी व बेमानी है,
बेबस है, इंसानियत
इंसानों को मिटते देख.








 

Monday, June 21, 2010

कहा गए वो लोग

एक दिन उसी रस्ते से
गुजर रहा था
चमचम सड़के
ऊँची-ऊँची इमारतो
दिकती थी चहुओर,
हरे भरे पेड़ों से से सजा था
वातावरण गुन्जन्मय था
खुशबू से सरोबर था।

कहते है शिक्षित लोगो और
बौधिक जनों का खूबसूरत
सुन्दर दुनिया है यह,
यही लोग दुनिया को
पढ़ाते है, आगे बढ़ाते है
नई-नई राहे दिखाते है
ना जाने किन- किन
उपायों से
मानव को कौन जाने
कहाँ पहुचाते है।

इसी बस्ती के न जाने
कितने छोटे मोटे काम
अशिक्षित अनजान लोग
इन्ही अच्छे लोगो का काम
निपटाते है. छोटी सी पगार में
न जाने कौन-कौन काम
निपटाते थे. सब बड़ी ही
मासूमियत से बड़ाई कर
काम निकल लेते थे.
इन्ही लोगो में था रघुबीर.

सीधा, साधा, भोला सा
न जाने किस मिटटी का इन्सान
हस्त रहता, गाता जाता
खुस होकर हर छोटा बड़ा
काम निपटता.

Sunday, June 20, 2010

बन जाओ

कुछ बन जाओ
कुछ कर जाओ
निखार दो अपनी मस्तक को
धार दो अपनी निगाहों को,
बल परिपूर्ण करो बांहों को
फैला दो सीना प्रेम कि बहारो को
मत भूलो इस जीवन के उपकार
मत भूलो मानव का आहार
कर दो मानवता का एक नया
फिर से चमत्कार

जीवन को इतना
उपयोगी कर दो,
हर कोई मानव से प्यार करे
तकरार करे भी तो
एक दूजे से करे प्यार

जहरीले हो बन जाओ

तुम जहरीले हो जाओ
जो मिले उसे खा जाओ
इंसानियत को मिटा दो
अपने को मसीहा बता
एक नया धर्म चला दो
जहर बोओं, जहर फैला दो.

आदमी को बक्श
आदमी को आदमी बना दो
उन जहरीले लोगों के लिए
तुम जहरीले बन जाओ.

सबको खिला दो
जहर पिला दो
जहर से नहला दो
मई ही नहीं
कभी तो तुम्हारा कोई
अपना जिसे समझते होगे
वो भी तो मरेगा,
तुम्हारे जहर से, तुम्हारे कहर से
इसी लिए तो कहता हूँ
तुम जहरीले बन जाओ.

कभी तो अहसास होगा ही
कोई तो अपना होगा ही,
जो तुम्हे भी पिलाएगा जहर
जो तुम्हे भी तड्पाएगा
या फिर तुम्हे तुम्ही से
अलग कर अपना जहर फैलाएगा
इसी लिए तो कहता हूँ
तुम जह्रीके हो जाओ

जहर पीकर मुझे उम्मीद है
तुम अमर हो जाओगे
दूसरो को बचाओगे
जहर है जह्रीलो को क्या
दूसरों का जहर पी जाओ
ख़त्म कर दो उनको,
जिन्होंने आदमी को जहरीला बना दिया,
जहर पी कर भी जीना सिखा दिया
किसी को तो उनको मरना ही होगा
तुम्ही करो यह काम
जहार्वालो का जहर पी लो
जहरीले बन जाओ.




Thursday, May 27, 2010

इन्सान कि पहचान

इन्सान को इन्सान से
जुदा कर दिया,
न जाने कितने
हिस्सों में बाँट दिया,
अब फिर से सुरु है
एक नै जद्दोजिहाड़।

पहेल किसी को काला
तो किसी को सफ़ेद बना दिया,
फिर भी न हुई तसल्ली तो
धर्मों में बांट दिया,
तसल्ली न हुई तो और
नफ़रत के बीज
जातियों तक फल दिए।

अब उन्ही को गिनना
चाहते है कि
कितने उगे, कितने रुके है
कितने बचे है जिन्हें और
जलना है, उजाड़ना है,
बिखराना है, बहाने
अपनों के अपनों को ही
बिसर जाना है.

Wednesday, May 26, 2010

सबूत

खुशियों को न मिटने दो
किसी को भी न
किसी से बिछड़ने दो
अहसास तो होगा
जब कोई आस-पास होगा
राहें होंगी तो मोड़ भी होगा,
नहीं होगा तो उबासी
नहीं होगी तो उछाछी
एक सुनहरा सा अहसास
जीवन जीने का
होगा ही,
भूल कर अपना पराया
बिसरा कर वासना
जिन्दगी होने का
सबूत तो हंस कर
देना ही होगा।

Thursday, May 13, 2010

सच

सच सच है
पुराना हो या नया
अच्छा हो या नूर
सच तो सच ही है,
सोचो तो सच है क्या
सच ही क्या है?

सच में ढूंढो
सच है क्या?
सच ही अच्छा है क्यों?
पूछो उन लोगो से
जो सच ही खाते है
पीते है, सच ही उगलते है,
यानि कि वही सच है
वही सच को जानते है
और सभी जुठ्लाते है,
क्योकि यही सच बनाते है

सच क्या?
सब इन्ही कि सेन है,
यही जीवन में मेन है
अन्य तो बस मैन है
अंग्रेजी में भी
हिंदी में भी
हर भाषा में इनका ही
जलवा है,
यही सच है, यही सच कि दें है

Monday, May 10, 2010

नया कुछ

टूटा है
छूता है,
जुड़ता हैं
घटता है,
यही तो जीवन है
हर पल एक नया कुछ
होता है, जुड़ता है, छूटता है,
तब कुछ कुछ नया बनता है,
एक पल के इस जीवन में
सब कुछ अपना है,
हर पल, हर जीव, हर वस्तु
और प्रकृति का हर उपहार
सब कुछ तो अपना है

प्रकृति ने
इन्सान बनाया था
हर जीव को सिखाया था
हर वस्तु को उपयोगी बनाया था,
जीवन हो हो
उससे लगाओ लगाया था,
नस्ट हो किसी का
जीवन,
इसीलिये तो उसने
मधुरता को इजाद किया
बिछुड़ना तो हर कोई को है
मिलने - मिलाने का नया रिश्ता
का संचार किया

तू नस्ट होगा, तेरा कुछ
तू तो अविनासी है
शरीर को कुछ कह
यह तो मिटना ही है,
मई बनाऊ या तू
बचेगा नहीं कुछ,
येही तो संजाल यहाँ
तू टिक जायेगा
तो नया कुछ होगा,
बीते का मलाल कहाँ


Sunday, May 9, 2010

माँ

हमारे और आपके जीवन को देने वाली हमको दुनियादारी कि सिख तक पहुचने वाली माँ,
तुमको हम सादर अपना शीश समर्पण करते हैं


एक जीवन देने वाली
दुखो को हरने वाली,
एक-एक पल को संजोकर
मेरे स्वप्नों को स्वरुप देने वाली
एक शरारत पर न्योछावर होने वाली,
जीवन को जोवन देने वाली एक ही
खुद को मिटाकर
हमको सर पर बिठा कर
सयाना बनाने वाली
तुम ही तो हो
माँ,
बस तुम ही हो
माँ


आशा है कि मै माँ - पिता जी की सेवा कर सकूँगा और उनको किसी प्रकार का कस्ट नहीं होने दूं , ऐसी मेरी इच्छा है

माँ दिवस पर एक छोटी सी इच्छा

Saturday, May 8, 2010

फिर वही हिन्दुस्तानी कसाब

एक बाहरी था कसाब
उसे मिटाने में लगा था पूरा
हिंदुस्तान
कसूर था कि लोगो को
उसने मारा है,
उसने क्या?
इन्सान ने इन्सान को मारा है

तमाम बार ऐसा होता है
होता रहा है,
इन्सान इन्सान को मर रहा है,
अपना बड़प्पन दिखा रहा है,
नाम कसाब का दे रहा है

इस देश में जाने कितने
कसाब टहल रहे,
एक कसाब, कसाब पर
बातों के तीरों से
आघात कर रहा है,
खुद मजे में जी रहा है

इन गिरह्बनो के कसाबों
को खत्म करो,
कसाब पैदा होना ही
बंद हो जायेगा,
वो आएगा, ही वो जायेगा,
इन्सान का मरना बंद हो जायेगा,
कसाब इतिहास था, इतिहास ही रह जाएग।।

Thursday, May 6, 2010

कसाब

इतना बड़ा देश
अदना सा एक लड़ाका
एक मंत्रालय का खर्चा
तब लगा एक छोटा सा तड़का,
कि उसे फांसी होगी।

थोड से लोगों ने मर दिए न जाने
कितने सपूतों को,
असली सिपाहियों को
जो बीके नहीं।
इस देश में
सबकुछ बिकता है।
आदमी कि बिसात क्या
उसे तो बस दुख मिलता है।

जब से कसाब का सुख लोगों ने
देखा है,
होदा सी लगी है
एक कसब बनाने की।
कसाब की ही किस्मत क्यों अच्छी थी
अपनी क्यों खोटी,
जो पातें हैं
बस वही रोटी।
क्या जलवा है बन्दे का
क्या अंदाज है जीने का
फौजों की पंक्तियाँ सजी हैं
थालों की बात ही क्या
न जाने किस-किस मेवों से
होता है सत्कार वहां।

Monday, May 3, 2010

लिखना

कहना ही है क्या सबकुछ होता है,
तो ओठ हिले, तो क्या काफी नहीं है
खूब ज्यादा लिखना ही तो अच्छा नहीं,
जब दो सबद ही हकीकत बयां कर देते हैं

Saturday, May 1, 2010

संघर्स करो

जीवन मिलता एक बार,
नास्ता होने में लगे न एक पल,
हो जाये न बेकार,
कर लो संघर्स बार-बार।

जीवन का न मोह करो
झूठे से बच कर
मानव को बचाओ
अत्याचारी को नास्ता कर
अपना एक सिधांत लिखो
मिट कर भी एक नया
अध्याय बनो
पढकर जिसको दुनिया
फिर से एक नयी दुनिया बने।

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सच का सच

जब सच का पलड़ा
उठता है,
हर बात सुहानी हो जाती है,
दिन भी अच्छा-अच्छा लगता,
हर पहलू का रूप
अनोखा प्रकट हटा है।

इठला उठती है धरा
उमड़ उड़ाती हैं घटायें।
सहज नहीं यह अनोखी
दुनिया के हर पहलू
एक-एक पल में
हर एक अदा मनोहारी
हो जाती है।

Thursday, April 29, 2010

आशा

निरीह आँखें
ढूंढ़ रही एक आशा को
एक किरण उजाला की
एक रोटी जीवन की
एक पल खुशियों का
एक-एक उमंगो को
जीने की

अनजान छितिज़ में खोई है
जाने कितना ये रोई है
अंजानो को अपना बनाने में,
ज़माने से ये सोई हैं,
सपनो को अपना बनाने में

छूट रही हैं,
किरणों की उम्मीदें
रोटियों की भीख
सपनो की सफ़र
अपनों का प्यार
सुखों की बयार
प्राणों की डोर
और फिर
टूट रही हैं आशाएं

Thursday, April 22, 2010

माँ

जननी ही नाजनी है,
जानती है
सपने बुनती है
दाने चुगती और चुगती है,
अल्हरती है
बहलाती है,
हर क़ज़ा से बचाती है,
एक-एक पल को चुन कर
जीवन देती है वह,
शरीर के अपने प्रेम-प्यार से
बड़ा कर दंभ से भर जाती है,
तुमको अपना एक स्तम्भ बताती है,
माँ माँ ही है,
हर पल, हर दिन का
गौरव तुम्हे बनती है.

Tuesday, April 20, 2010

सरलता से अब कोई मर न सकेगा
सर्कार ऐसी व्यवस्था
करने जा रही है।
इतरा रही है, उतारा रही है,
जतला रही है,
सर्वे व अनुसंधानों का सिलसिला
अधिनियमों का नया अध्याय
लिखे जा रहे है कि
कोई इंसानियत हर न सकेगा,
सरलता से अब कोई मर सकेगा।


न जाने नित नया मिसन बन जाता है,
विकास का दिया जला दिया जाता है,
जनता का पैसा गला दिया जाता है,
नित नए-नए आंकड़े बालते है,
पेट किसी का खली न हो
हर हाथ में कम की माला हो
कोई आसानी अब गड़बड़ कर न सकेगा,
से सरलता से अब कोई मर सकेगा

फिर भी मरना बंद न हुआ,
जिसे देखो वह मर जहा है,
मरने को फिर रहा है,
आकड़ो को जुथला रहा है,
सरकार को बहका रहा है।
न जाने किस-किस रास्ते से मर रहा है,
सबको आगाह कर दिया गया है,
डरने की कोई बात नहीं है,
नया मिसन बना दिया गया है,
की अब कोई मौत से दर न सकेगा,
सरलता से अब कोई मर सकेगा। ।

Saturday, April 17, 2010

खोना- पाना

मित्थ्या इस जीवन में
हर इन्सान मित्थ्या हो गया,
झूठा इतना कि इस कहानी
का अभिनेता बन गया,
मिटा-मिटा कर इंसानियत
जीवन ही मित्थ्या कर दिया

रुक-रुक कर ही सही
वह जाने कितना खो दिया,
प् सका उन उम्मीदों को
जो उसको पाना था.
खोने के लिए बचा ही क्या है
हर तरह से बगाने हुए
जो खोया पाने के लिए,
फिर भी पा ना सके कुछ
खोने के लिए.

बचा क्या है?

इस नव धरती में
बचा ही क्या है,
कंक्रीट के जंगल में
जाना ही क्या है।
चिल्लाहट है
शोर है- शराबा है,
इंसानियत नहीं
बस पैसा का ही धावा है।

चौराहे बहुत बन गए
जनता भी घर छोड़ चुकी है,
कंक्रीट कि सरक पर
अनाजों को उगा-उगा कर,
इठला रहे है, इतर रहे है,
हमने इन्सान के खून से
क्या जोड़ा है दिखला रहे है।

उनके पास बचा ही क्या है
फिर भी दिखा रहे है,
अपने से अनजान
अपनों को बता रहे हैं,
वह्के-वह्के कदम ही
बता रहे है,
उनके पास बचा ही क्या है?