इस नव धरती में
बचा ही क्या है,
कंक्रीट के जंगल में
जाना ही क्या है।
चिल्लाहट है
शोर है- शराबा है,
इंसानियत नहीं
बस पैसा का ही धावा है।
चौराहे बहुत बन गए
जनता भी घर छोड़ चुकी है,
कंक्रीट कि सरक पर
अनाजों को उगा-उगा कर,
इठला रहे है, इतर रहे है,
हमने इन्सान के खून से
क्या जोड़ा है दिखला रहे है।
उनके पास बचा ही क्या है
फिर भी दिखा रहे है,
अपने से अनजान
अपनों को बता रहे हैं,
वह्के-वह्के कदम ही
बता रहे है,
उनके पास बचा ही क्या है?
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