Saturday, July 3, 2010

मेरी बेबसी

जिधर नजर उठ रही है
बेबसी नजर आ रही है,
कोई किसी से बेबस है
तो कोई किसी से.

मै समझ रहा था
मै ही बेबस हूँ
यहाँ तो हर कोई
बेबस नजर आ रहा है.
न कोई नजर उठा रहा है
न कोई नजर मिला रहा है
आँखें होते हुए भी
हर कोई अँधा बना हुआ है.
अँधेरे में अब हर इन्सान
जी रहा है.

इन्सान, इन्सान को भूल
प्रकति से खेल रहा है
जिसे जो करना चाहिए
वह न कर, इंसानियत से
खेल रहा है.
इंसानों के खून से
रुपये बना रहा है.
उन रुपयों से इंसानों पर
रुतुबा दिखा रहा है.
उसके सामने इंसानियत भी
बौबी व बेमानी है,
बेबस है, इंसानियत
इंसानों को मिटते देख.








 

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