Tuesday, July 27, 2010

नए नए रूप

एक सुन्दर सी स्त्री
नित नए-नए
श्रंगार को सोचिती है
बदलने कि कोशिश में
रहती है नित अपना
सुन्दर सलोना रूप.

कुछ ऐसा ही हाल
इंसानियत का हो गया
इन्सान ही इंसान
के खात्मे का नया
से नया तरीका कर इजाद
हर हाल में अपनों को ही
खा जाना चाहता है,
मिट गया अपने- पराये
का भेद-भाव,
हर तरफ समानता है
हर कोई इंसानियत से ऊपर
उठ गया है और
पैसे में ही खो गया है.

अब अपनापन तो खो गया
जो था वह बिसर गया
धन कि अंधी दौर में
इधर कि न उधर कि
हर तरफ बस चिंता
आदमी को धन की,
अपने ही बह्नाये
इस कुचक्र में
फसा है इन्सान,
चाँद रुपयों के लिए
मिटा रहा अपनों को
सजा रहा झूठे सपनो को.

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